फासीवाद से कैसे
लड़ें?’
इटली, जर्मनी और भारत
में फ़ासीवाद के
पैदा होने से
लेकर उसके विकास
तक का ऐतिहासिक
विश्लेषण करने के
बाद हमने फ़ासीवादी
उभार के प्रमुख
सामान्य ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक
और राजनीतिक कारणों
को समझा। एक
सामान्य निष्कर्ष के तौर
पर यह बात
हमारे विश्लेषण से
सामने आयी कि
पूँजीवादी व्यवस्था का संकट
क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी,
दोनों ही सम्भावनाओं
को जन्म देता
है। अगर किसी
समाज में क्रान्तिकारी
सम्भावना को मूर्त
रूप देने के
लिए एक अनुभवी
और विवेक-सम्पन्न
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पार्टी मौजूद नहीं
है, और फ़ासीवादी
शक्तियों ने समाज
के पोर-पोर
में अपनी पैठ
बना ली है,
तो प्रतिक्रियावादी सम्भावना
के हकीकत में
बदल सकती है।
जर्मनी और इटली
में यही हुआ ।
दूसरी बात जो लगती है कि
मज़दूर आन्दोलन में सामाजिक-जनवादी ताकतों की कमजोरियां एक
बड़ा कारण थी
जिसने एक रोके
जा सकने वाले
फ़ासीवादी उभार को
न रोके जा
सकने वाले फ़ासीवादी
उभार में तब्दील
कर दिया। मज़दूर आन्दोलन
का नेतृत्व पूँजीवादी
संकट की स्थिति
में अगर क्रान्तिकारी
विकल्प मुहैया नहीं कराता
है और पूरे
आन्दोलन को , अर्थवाद, अराजकता और ट्रेड-यूनियनवाद की अंधी गलियों
में घुमाता रहेगा
तो निश्चित रूप
से अपनी गति
से पूँजीवाद अपनी
सबसे प्रतिक्रियावादी तानाशाही
की ओर ही
बढ़ेगा। बल्कि कहना चाहिए
एक संगठित और
मज़बूत, लेकिन अर्थवादी, और ट्रेड-यूनियनवादी
मज़दूर आन्दोलन पूँजीवाद को
संकट की घड़ी
में और तेज़ी
से फ़ासीवाद की
ओर ले जाता
है तीसरी
बात : यह सच
है कि फ़ासीवाद
अन्त में और
वास्तव में बड़ी
पूँजी के हितों
की सेवा करता
है, लेकिन ऐसा
नहीं है कि
इसका सामाजिक आधार
महज़ बड़ा पूँजीपति
वर्ग होता है।
बड़े पूँजीपति वर्ग
को मज़दूर आन्दोलन
के दबाव को
तोड़ने के लिए
एक ऐसी ताकत
की ज़रूरत होती
है जिसका व्यापक
सामाजिक आधार हो।
फ़ासीवाद के रूप
में उसे वह
ताकत मिलती है।
पूँजीवादी संकट बड़े
पैमाने पर शहरी
और ग्रामीण निम्न
पूँजीपति वर्ग और
मध्यम वर्गों
को उजाड़कर असुरक्षा
और अनिश्चितता की
स्थिति में पर्हुंचा
देता है। दिशाहीन
शहरी बेरोज़गार युवा
आबादी, शहरी और
ग्रामीण निम्न पूँजीपति वर्ग
के बीच में
फ़ासीवादी ताकतें अपना प्रचार
करती हैं और
उनकी निगाहों में
किसी अल्पसंख्यक समुदाय
को और संगठित
मज़दूर आन्दोलन को निशाना
बनाती हैं। असुरक्षा
और अनिश्चितता से
चिड़चिड़ाये और बिलबिलाये
टटपुँजिया वर्ग में
प्रतिक्रिया की ज़मीन
पहले से तैयार
होती है और
वह फ़ासीवादी प्रचार
का शिकार बन
जाता है। फ़ासीवाद
ग्रामीण और शहरी
मध्य वर्गों,
निम्न पूँजीपति वर्गों
और लम्पट सर्वहारा
वर्ग के जीवन
की दिशाहीनता, हताशा,
लक्ष्यहीनता और सांस्कृतिक
पिछड़ेपन का फायदा
उठाते हुए उनके
बीच लम्बी तैयारी
के साथ प्रतिक्रिया
की ज़मीन तैयार
करता है। इसी
प्रक्रिया का नतीजा
होता है एक
फ़ासीवादी आन्दोलन का पैदा
होना, जिसके सामाजिक
अवलम्ब के तौर
पर ये वर्ग
होते हैं। फ़ासीवाद
की विजय या
उसके सत्ता में
आने के साथ
ही ये वर्ग
इस सच्चाई से
वाकिफ हो जाते
हैं कि फ़ासीवाद
वास्तव में बड़ी
पूँजी का सबसे
निर्मम और बर्बर
चाकर है और
उससे दूर भी
होने लगते हैं।
लेकिन यह तो
बाद की बात
है। प्रभावी क्रान्तिकारी
प्रचार और पार्टी
के अभाव में
फ़ासीवाद उभार की
ज़मीन भी इन्हीं
वर्गों के बीच
तैयार होती है।
चौथी बात जो
हमने नतीजे के
रूप में समझी,
वह यह थी
कि जिन देशों
में पूँजीवाद किसी
क्रान्ति के ज़रिये
सत्ता में नहीं
आया, वहाँ पूरी
अर्थव्यवस्था, समाज और
राजनीति में ग़ैर-जनवादी और निरंकुश
प्रवृत्तियों का बोलबाला
होता है। यहाँ
तक कि भावी
समाजवादी क्रान्ति के मित्र
वर्गों में भी
इन प्रवृत्तियों ने
जड़ जमा रखी
होती है। रैडिकल
भूमि सुधार के
अभाव में गाँव
में नये धनी किसानों
का एक पूरा
वर्ग होता है
जो फ़ासीवाद के
लिए एक मज़बूत
सामाजिक आधार का
काम करता है।
मँझोले किसानों का एक
बड़ा हिस्सा भी
क्रान्तिकारी प्रचार, आन्दोलन और
संगठन के अभाव
में फ़ासीवादी प्रचार
में बह जाता
है। पूँजीवादी जनवादी
क्रान्ति के अभाव
में शहरी मध्यवर्गों में भी
जनवादी विचारों और प्रथाओं
का भारी अभाव
होता है। यह
मध्यवर्ग उस
यूरोपीय मध्यवर्ग
के समान नहीं
है जिसमें तार्किकता,
वैज्ञानिकता और गतिमानता
कूट-कूट कर
भरी हुई थी
और जो मानवतावाद
और जनवाद के
सिद्धान्तों का जनक
था। आर्थिक तौर
पर यह मध्यवर्ग बन चुका
है, लेकिन वैचारिक
और आत्मिक तौर
पर उसमें ऐसा
कुछ नहीं है
जिसे आधुनिक मध्यवर्ग जैसा कहा
जा सके। यही
कारण है कि
यह शहरी पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग भी फ़ासीवादी
प्रचार के समक्ष
अरक्षित होता है
और उसके प्रभाव
में आ जाता
है। पूँजीवादी क्रान्ति
का अभाव ही
था जिसने जर्मनी
और इटली को
फ़ासीवाद के उदय
और विकास की
ज़मीन बनाया और
फ्रांस को नहीं।
यह बेवजह नहीं
था कि फ्रांस
में फ़ासीवादी समूहों
को कभी कोई
बड़ी सफलता नहीं
मिली।
ये कुछ प्रमुख
नतीजे थे जिन
पर हम अपने
विश्लेषण के ज़रिये
पहुँचे थे। अपने
इन नतीजों के
आधार पर ही
हमें यह तय
करना होगा कि
हमें फ़ासीवाद से
किस प्रकार लड़ना
है। ज़ाहिर है
कि हमें फ़ासीवाद
पर विचारधारात्मक और
राजनीतिक चोट करनी
ही होगी; हमें
पूरी फ़ासीवादी विचारधारा
के वर्ग मूल
और चरित्र को
आम जनता के
सामने उजागर करना
होगा; हमें फ़ासीवादियों
की असली जन्मकुण्डली
और उनके इतिहास
को जनता के
समक्ष खोलकर रख
देना होगा; हमें
उनके भर्ती केन्द्रों
पर चोट करनी
होगी और उन
सभी वर्गों के
बीच सघन और
व्यापक राजनीतिक प्रचार चलाना
होगा जो उनका
सामाजिक अवलम्ब बन सकते
हैं; हमें मज़दूर
आन्दोलन के अन्दर
ज़बरदस्त राजनीतिक प्रचार चलाते
हुए मज़दूर वर्ग
को उसके ऐतिहासिक
लक्ष्य और उत्तरदायित्व,
यानी, समाजवादी क्रान्ति
और कम्युनिज्म की
ओर आगे बढ़ने
से, अवगत कराना
होगा; इसी प्रक्रिया
में हमें मज़दूर
वर्ग के भीतर
मौजूद वर्ग विजातीय
प्रवृत्तियों पर चोट
करनी होगी और
उसे अर्थवाद और ट्रेड-यूनियनवाद से बाहर निकालना होगा । आज मज़दूर आन्दोलन
के भीतर भारतीय
मज़दूर संघ सबसे
बड़ी ट्रेड यूनियन बन
चुका है तो
इसकी ज़िम्मेदार एटक,
सीटू और एक्टू आदि संगठनो की कमजोरियां भी हैं । इन
बातों को हम
अच्छी तरह समझते
हैं, लेकिन फिर
भी कम्युनिस्ट कतारों
और कार्यकर्ताओं के
लिए बिन्दुवार कुछ
ठोस बातों को
समझ लेना बहुत
ज़रूरी है। हमारी
समझ में ये
कुछ चन्द ज़रूरी
बातें हैं, जिन
पर अमल फ़ासीवाद
को शिकस्त देने
के हमारे संघर्ष
में हमारी भारी
मदद कर सकता
है।
1. मज़दूर मोर्चे पर जो
सबसे अहम कार्यभार
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के सामने
है, वह है
मज़दूर आन्दोलन और ट्रेडयूनियन
आन्दोलन के भीतर
, ट्रेडयूनियनवाद, अर्थवाद, और
अराजकतावादी रूझानों के ख़िलाफ
फैसलाकुन, समझौताहीन और निर्मम
संघर्ष। यही वे
भटकाव हैं जो
मज़दूर वर्ग को
फ़ासीवाद के राक्षस
के समक्ष वैचारिक
और राजनीतिक तौर
पर अरक्षित छोड़
देते हैं। मज़दूर
वर्ग के बीच
भारत की कम्युनिस्ट
पार्टी, भारत की
कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी),
भारत की कम्युनिस्ट
पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी)
लिबरेशन जैसी पार्टियों को आत्म मंथन करना चाहिए और दुसरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के साथ भी संवाद बढ़ाना और एक व्यापक मोर्चा बनाना सबसे ज़रूरी काम
है। फ़ासीवाद से
लड़ने के लिए
मज़दूर वर्ग को
जिस स्वप्न की
ज़रूरत होती है,
हमें
उसी स्वप्न को
मज़दूर वर्ग के
बीच पुनर्जीवित करना
और फैलाना है।
इसके बग़ैर हम
फ़ासीवाद से लड़ने
के लिए मज़दूर
वर्ग की जुझारू
और लड़ाकू एकता
और मजबूत संगठन खड़े
नहीं कर सकते।
हमें मज़दूर वर्ग
के भीतर अराजनीतिक
प्रवृत्तियों का भी
ज़बरदस्त विरोध करना चाहिए।
अराजनीतिक प्रवृत्तियों में सबसे
प्रमुख है अराजकतावाद
और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद
जो मज़दूर वर्ग
के ऐतिहासिक लक्ष्य
के प्रति उसके
सचेत होने को
भारी नुकसान पहुँचाता
है। ये मज़दूर
वर्ग के बीच
ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद
और मज़दूर वर्ग
के ”स्वायत्त” संगठन
की सोच को
प्रोत्साहित करता है।
स्वायत्त का अर्थ
है विचारधारात्मक और
राजनीतिक रूप से
अनाथ! इस स्वायत्तता
की लफ्फाजी का
पर्दाफाश करना चाहिए
और मज़दूर वर्ग
में क्रान्तिकारी विचारधारा
और पार्टी की
ज़रूरत को हर-हमेशा रेखांकित किया
जाना चाहिए। ज्ञात
हो कि अराजकतावादी
संघाधिपत्यवादी जॉर्ज सोरेल के
अधिकांश अनुयायी इटली में
फ़ासीवादियों की शरण
में चले गये
थे। यह अनायास
नहीं था।
2. मज़दूर मोर्चे के बाहर
भी आम मध्यवर्ग और निम्न
मध्यवर्ग और
साथ ही ग्रामीण
क्षेत्र की सर्वहारा,
अर्द्धसर्वहारा, ग़रीब और मँझोले
किसानों की आबादी
में भी हमें आज के दौर का सही विश्लेषण ले जाना होगा ।
3. सबसे प्रमुख तौर पर
मज़दूर वर्ग में,
लेकिन साथ ही
शहरी और ग्रामीण
निम्न पूँजीपति वर्ग,
अर्द्धसर्वहारा आबादी, ग़रीब और
मँझोले किसानों, खेतिहर मज़दूरों
और वेतनभोगी निम्न
मध्यवर्ग के
बीच क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट
पार्टी को लगातार
राजनीतिक प्रचार की कार्रवाइयाँ
चलाते हुए यह
दिखलाना होगा कि
पूँजीवाद एक परजीवी
और मरणासन्न व्यवस्था
है जो अपनी
ऐतिहासिक भूमिका निभाकर अपनी
प्रासंगिकता खो चुकी
है। अब यह
जनता को बेरोज़गारी,
महँगाई, ग़रीबी, भुखमरी, असुरक्षा,
अनिश्चितता आदि के
अतिरिक्त और कुछ
भी नहीं दे
सकता। यह अपनी
जड़ता की ताकत
से टिका हुआ
है और इसकी
सही जगह इतिहास
का कूड़ेदान है।
पूँजीवादी समाज और
व्यवस्था की रोज़मर्रे
की और प्रतीक
घटनाओं के ज़रिये
लगातार उसे नंगा
करना होगा। मज़दूरों,
युवाओं, छात्रों, बुद्धिजीवियों और
स्त्रियों की पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से
हर सम्भव मौके
पर पूँजीवाद की
ऐतिहासिक व्यर्थता को प्रदर्शित
करना होगा। पूँजीवादी
संकट के दौर
में और पूँजीवादी
चुनावों के दौर
में इस व्यवस्था
और समाज का
क्रान्तिकारी विकल्प लेकर ज़ोरदार
तरीके से आम
मेहनतकश जनता के
सभी वर्गों में
जाना होगा। ये
वे वक्त होते
हैं जब जनता
राजनीतिकरण के लिए
मानसिक तौर पर
खुली और तैयार
होती है। लेकिन
जब ऐसे मौके
न हों तब
भी निरन्तरता के
साथ, बिना थके
और तात्कालिक परिणामों
की आकांक्षा किये
बग़ैर पूँजीवाद विरोधी
कम्युनिस्ट राजनीतिक प्रचार को
जारी रखना होगा,
कभी विलम्बित ताल
में तो कभी
द्रुत ताल में।
लेकिन बिना रुके,
बिना थके।
4. मज़दूर वर्ग की
पार्टी को मज़दूर
मोर्चे, छात्र-युवा मोर्चे,
बुद्धिजीवी मोर्चे, स्त्री मोर्चे तथा सामाजिक सुधार के नवजागरण समेत सभी मोर्चों
पर उन अतार्किक,
अवैज्ञानिक और निरंकुश
विचारों के ख़िलाफ
प्रचार चलाना होगा जिनका
इस्तेमाल फ़ासीवादी ताकतें निम्न
पूँजीपति वर्गों, मध्यम
वर्गों, लम्पट सर्वहारा, आदि
को साथ लेने
के लिए करती
हैं। मिसाल के
तौर पर, नस्लवाद,
साम्प्रदायिकतावाद, क्षेत्रवाद, भाषाई कट्टरता, पितृसत्तावाद ,जातीयतावाद, जातिवाद आदि। ये
वे विचारधाराएँ हैं
जिनका इस्तेमाल कर
फ़ासीवादी ताकतें जन असन्तोष
की दिशा को
पूँजीवादी व्यवस्था की दिशा
में मुड़ने से
रोकती हैं और
उन्हें किसी अल्पसंख्यक
समुदाय या जाति
की ओर मोड़
देती हैं और
एक निरंकुश प्रतिक्रियावादी
और बहुसंख्यावादी राजनीति
करते हुए फ़ासीवादी
सत्ता कायम करती
हैं। इन विचारधाराओं
का विरोध हमें
बुर्जुआ मानवतावाद और धर्मनिरपेक्षता
की ज़मीन पर
खड़ा होकर नहीं
बल्कि सर्वहारा वर्ग
की वर्ग चेतना
की ज़मीन पर
खड़ा होकर करना
होगा। बुर्जुआ मानवतावादी
अपीलें और धर्मनिरपेक्षता
का राग अलापना
कभी भी साम्प्रदायिक
फ़ासीवाद का मुकाबला
नहीं कर पाया
है और न
ही कर पायेगा।
सर्वहारा वर्ग चेतना
की ज़मीन पर
खड़ा होकर किया
जाने वाला जुझारू
और आक्रामक प्रचार
ही इन विचारों
के असर को
तोड़ सकता है।
हमें तमाम आर्थिक
और सामाजिक दिक्कतों
के अवरोध को
आम जनता के
सामने नंगा करना
होगा और साम्प्रदायिक
प्रचार के पीछे
के असली इरादे
पर से सभी
नकाब नोच डालने
होंगे। साथ ही,
यह प्रचार करने
वाले व्यक्तियों की
असलियत को भी
हमें जनता के
बीच लाना होगा
और बताना होगा
कि उनका असली
मकसद क्या है।
धार्मिक कट्टरपन्थी फ़ासीवाद का
मुकाबला इसी ज़मीन
पर खड़े होकर
किया जा सकता
है। वर्ग निरपेक्ष
धर्म निरपेक्षता और
‘मज़हब नहीं सिखाता’
जैसी शेरो-शायरी
का जनता पर कम प्रभाव पड़ता है।
5. फ़ासीवाद
के सत्ता में
रहने पर या
उसके सत्ता में
रह चुके होने
पर उसकी सच्चाई
को जनता के
सामने उजागर करना
अधिक आसान होता
है। भाजपा के
नेतृत्व में छह
वर्षों तक राजग
सरकार के चलने
से वे काम
हो गये जो
सामान्य परिस्थितियों में करने
पर किसी क्रान्तिकारी
ताकत को दुगुना
वक्त लगता। सत्ता
में आते ही
फ़ासीवादियों का धनलोलुप,
पतित, चरित्रहीन, सत्ता-लोलुप, कुर्सी-प्रेमी,
अनैतिक चरित्र सामने आने
लगता है और
उनके चेहरे पर
से धार्मिक पावनता,
नैतिकता, और अनुशासन
का सारा नकाब
चिथड़ा हो जाता
है। इस कारक
का क्रान्तिकारी ताकतों
को पूरा इस्तेमाल
करना चाहिए और
जनता के हर
हिस्से में फ़ासीवादियों
के भ्रष्टाचार, अनैतिकता,
पतन और धनलोलुपता
को जमकर निशाना
बनाना चाहिए और
उनका भण्डाफोड़ करना
चाहिए। ऐसा प्रचार
निरन्तरता के साथ
लम्बे समय तक
चलाया जाना चाहिए।
इससे हम उनकी
विश्वसनीयता को प्राणान्तक
चोट पहुँचा सकते
हैं। यह बेहद
ज़रूरी है कि
फ़ासीवादियों को जनता
के बीच किसी
भी रूप में
पैर न जमाने
दिया जाये। इस
मकसद में यह
प्रचार बहुत बड़ी
भूमिका निभाएगा।
6. फ़ासीवाद
के सामाजिक अवलम्बों
में जिन वर्गों
को फ़ासीवाद अपनी
पेशीय शक्ति के
रूप में भ्रष्ट
करता है वे
हैं आर्थिक और
क्षेत्रीय रूप से
पूँजीवादी विकास के कारण
उजड़े हुए वर्ग।
क्रान्तिकारी पार्टी को इन
वर्गों को संगठित
करने का प्रयास
एकदम शुरू से
कर देना चाहिए
और उनके बीच
शुरू से ही
पूँजीवाद-विरोधी राजनीतिक प्रचार
करना चाहिए। उन्हें
पहले कदम से
ही यह दिखलाना
होगा कि उनके
उजड़ने, उनके जीवन
की असुरक्षा और
अनिश्चितता और दर-बदर होने
के लिए और
कोई नहीं बल्कि
पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है।
यह और कुछ
कर भी नहीं
सकती है। ऐसे
वर्गों में लम्पट
सर्वहारा वर्ग, असंगठित और
अनौपचारिक क्षेत्र में काम
करने वाला सर्वहारा
वर्ग, शहरी निम्न
मध्यवर्गीय बेरोज़गार
और अर्द्ध-बेरोज़गार,
गाँवों में उजड़े
हुए या उजड़ते
हुए ग़रीब किसान
आदि प्रमुख हैं।
7. लेनिन ने बहुत
पहले बताया था
कि फ़ासीवाद और
प्रतिक्रियावाद दस में
से नौ बार
जातीयतावादी, नस्लवादी, साम्प्रदायिकतावादी सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद का चोला
पहनकर आता है।
वैसे तो हमें
शुरू से ही
बुर्जुआ राष्ट्रवाद के हर
संस्करण का पुरज़ोर
विरोध करना चाहिए,
लेकिन ख़ास तौर
पर फ़ासीवादी प्रजाति
का सांस्कृतिक अन्धराष्ट्रवाद
मज़दूर वर्ग के
सबसे बड़े शत्रुओं
में से एक
है। हमें हर
कदम पर सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद, प्राचीन हिन्दू राष्ट्र
के गौरव के
हर मिथक और
झूठ का विरोध
करना होगा और
उसे जनता की
निगाह में खण्डित
करना होगा। इसमें
हमें विशेष सहायता
इन सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों
की जन्मकुण्डली से
मिलेगी। निरपवाद रूप से
अन्धराष्ट्रवाद का जुनून
फैलाने में लगे
सभी फ़ासीवादी प्रचारक
और उनके संगठनों
का काला इतिहास
होता है जो
ग़द्दारियों, भ्रष्टाचार और पतन
की मिसालें पेश
करता है। हमें
बस इस इतिहास
को खोलकर जनता
के सामने रख
देना है और
उनके बीच यह
सवाल खड़ा करना
है कि यह
”राष्ट्र” कौन है
जिसकी बात फ़ासीवादी
कर रहे हैं?
वे कैसे राष्ट्र
को स्थापित करना
चाहते हैं? और
किसके हित में
और किसके हित
की कीमत पर?
”राष्ट्रवाद” के नारे
और विचारधारा का
निर्मम विखण्डन – इसके बिना
हम आगे नहीं
बढ़ सकते। राष्ट्र
की जगह हमें
वर्ग की चेतना
को स्थापित करना
होगा। बुर्जुआ राष्ट्रवाद
की हर प्रजाति
के लिए ”राष्ट्र”
बुर्जुआ वर्ग और
उसके हित होते
हैं। मज़दूर वर्ग
को हाड़ गलाकर
इस ”राष्ट्र” की
उन्नति के लिए
खपना होता है।
इसके अतिरिक्त कुछ
भी सोचना राष्ट्र-विरोधी है। राष्ट्रवाद
मज़दूरों के बीच
छद्म गर्व बोध
पैदा कर उनके
बीच वर्ग चेतना
को कुन्द करने
का एक पूँजीवादी
उपकरण है और
इस रूप में
उसे बेनकाब करना
बेहद ज़रूरी है।
यह न सिर्फ
मज़दूरों के बीच
किया जाना चाहिए,
बल्कि हर उस
वर्ग के बीच
किया जाना चाहिए
जिसे भावी समाजवादी
क्रान्ति के मित्र
के रूप में
गोलबन्द किया जाना
है।
8. मज़दूर वर्ग को
समझाना होगा कि
श्रम और पूँजी
की शक्तियों के
बीच कोई समझौता
नहीं हो सकता।
ऐतिहासिक तौर पर
ये दोनों अन्तरविरोधी
ताकतें हैं और
इतिहास ने उनके
सामने एक ही
विकल्प रखा है
– संघर्ष, और इस
संघर्ष में अन्तत:
विजय श्रम की
शक्तियों की होनी
है।
9. हम कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को
पूँजीवादी विकास के मौजूदा
दौर में अनौपचारिक
व असंगठित क्षेत्र
के मज़दूरों पर
विशेष रूप से
ज़ोर देना होगा।
आज भारत के
मज़दूर वर्ग का
90 फीसदी से भी
अधिक हिस्सा असंगठित
क्षेत्र में आता
है। संगठित मज़दूरों
की बड़ी आबादी
सफेद कॉलर के
मज़दूरों में तब्दील
हो रही है।
यह आबादी अपने
आपको मज़दूर की
बजाय कर्मचारी कहलवाना
पसन्द करती है
और इसका बड़ा
हिस्सा या तो फ्री लांस ट्रेड यूनियनों का
हिस्सा बन चुका
है या फिर
फ़ासीवादी भारतीय मज़दूर संघ
का, जो अब
भारत की सबसे
बड़ी ट्रेड यूनियन
है। अनौपचारिक व
असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों
के बीच फ़ासीवादी
ताकतें लगातार सुधार की
गतिविधियों और कीर्तन-जागरण आदि जैसे
धार्मिक क्रियाकलापों के ज़रिये
आधार बनाने का
प्रयास कर रही
हैं। इस आबादी
के फ़ासीवादीकरण के
लिए उनके बीच
सेवा भारती आदि
जैसे उपक्रम चलाए
जा रहे हैं
और उन्हें भ्रष्ट
करने की कोशिश
की जा रही
है। यह सही
है कि मज़दूर
आबादी के इस
हिस्से का फ़ासीवादीकरण
सबसे मुश्किल है
लेकिन फिर भी
हमें निरन्तरता के
साथ इस आबादी
को संगठित करने
का प्रयास सबसे
पहले करना होगा।
वैसे भी असंगठित
मज़दूर कुल मज़दूर
आबादी की बहुसंख्या
का निर्माण करते
हैं, इसलिए हमें
उनके इलाकाई संगठन
बनाने, उनके बीच
बच्चों के लिए
स्कूल खोलने, सुधार
की कार्रवाइयाँ करने
और उनके बीच
अदम्य और शक्तिशाली
सामाजिक आधार बनाने
की कार्रवाइयाँ करनी
चाहिए। उनके बीच
हमें निरन्तर, व्यापक
और सघन राजनीतिक
प्रचार करना होगा।
पुराने असंगठित मज़दूर वर्ग
की तरह यह
नया असंगठित मज़दूर
वर्ग वर्ग असचेत
नहीं है, बल्कि
घुमन्तू मज़दूर होने के
कारण पूरे पूँजीपति
वर्ग को अपने
दुश्मन के तौर
पर देखता है
और संगठित होने
की सम्भावना से
सम्पन्न है। दूसरी
बात यह है
कि इस मज़दूर
वर्ग का बड़ा
हिस्सा युवा है
जो हमारे लिए
एक अच्छी बात
है। इसी हिस्से
के बीच से
हम मज़दूर वर्ग
के सबसे जुझारू
संगठन बना सकते
हैं और हमें
बनाने होंगे। ज़ाहिर
है कि असंगठित
क्षेत्र के मज़दूरों
के बीच कारख़ाना
आधारित ट्रेड यूनियनें नहीं
बन सकती हैं।
इसलिए उनके बीच
हमें इलाकाई ट्रेड
यूनियनें बनानी चाहिए। ट्रेड
यूनियन के अतिरिक्त,
इलाकाई पैमाने के जुझारू
लड़ाकू संगठन खड़े किये
जाने चाहिए। जिस
प्रकार जर्मनी में कारख़ानों
में फैक्ट्री ब्रिगेडें
बनायी गयी थीं,
उसी प्रकार हमें
असंगठित मज़दूरों के रिहायशी
इलाकों में ऐसे
लड़ाकू संगठन खड़े करने
चाहिए, जो उनकी
ट्रेड यूनियन से
अलग हों। ट्रेड
यूनियनों का एक
विशेष काम होता
है और उन्हें
उसी काम के
लिए उपयोग में
लाया जाना चाहिए।
फ़ासीवादी हमलों को नाकाम
करने के लिए
मज़दूर वर्ग के
अपने अलग लड़ाकू-जुझारू संगठन होने
चाहिए।
10. फ़ासीवाद
की कार्यनीति की
एक ख़ास बात
यह होती है
कि अपने राजनीतिक
और सांगठनिक हितों
की पूर्ति और
अपने दुश्मनों के
सफाए के लिए
यह आतंक की
रणनीति का इस्तेमाल
करता है। जर्मनी
और इटली की
ही तरह भारत
के फ़ासीवादियों ने
भी बजरंग दल,
विश्व हिन्दू परिषद
और वनवासी कल्याण
आश्रम के नाम
पर अपने आतंक
समूह बना रखे
हैं। ये आतंक
समूह बुर्जुआ राज्य
के उपकरणों के
दायरे से बाहर
बुर्जुआ वर्ग की
तानाशाही को लागू
करने का काम
करते हैं। मज़दूर
नेताओं, ट्रेड यूनियन नेताओं,
कम्युनिस्टों, उदारपन्थियों पर हमले
और उनकी हत्याओं
का इतिहास भारत
में भी मौजूद
है। हड़तालों को
तोड़ने के लिए
ऐसे आतंक समूहों
का इस्तेमाल फ़ासीवादियों
ने भारत में
भी किया है।
महाराष्ट्र में हड़ताली
मज़दूरों और उनके
नेताओं पर शिवसेना
की गुण्डा वाहिनियों
के हमले को
कौन भूल सकता
है? हमें फ़ासीवाद
को विचारधारा और
राजनीति में तो
परास्त करना ही
होगा, लेकिन साथ
ही हमें उन्हें
सड़क पर भी
परास्त करना होगा।
इसके लिए हमें
मज़दूरों के लड़ाकू
और जुझारू संगठन
बनाने होंगे। ग़ौरतलब
है कि जर्मनी
के कम्युनिस्टों ने
फ़ासीवादी गिरोहों से निपटने
के लिए कारख़ाना
ब्रिगेडें खड़ी की
थीं, जो सड़क
पर फ़ासीवादी गुण्डों
के हमलों का
जवाब देने और
उन्हें सबक सिखाने
का काम कारगर
तरीके से करती
थीं। बाद में
यह प्रयोग आगे
नहीं बढ़ सका
और फ़ासीवादियों ने
जर्मनी में अपनी
सत्ता कायम कर
ली। मज़दूर वर्ग
का बड़ा हिस्सा
वहाँ अभी भी
सामाजिक जनवादियों के प्रभाव
में ही था
और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों
की पकड़ उतनी
मज़बूत नहीं हो
पायी थी। लेकिन
उस छोटे-से
प्रयोग ने प्रदर्शित
किया था कि
फ़ासीवादी गुण्डों से सड़क
पर ही निपटा
जा सकता है।
उनके साथ तर्क
करने और वाद-विवाद करने की
कोई गुंजाइश नहीं
होती है। साम्प्रदायिक
दंगों को रोकने
और फ़ासीवादी हमलों
को रोकने के
लिए ऐसे ही
दस्ते छात्र और
युवा मोर्चे पर
भी बनाए जाने
चाहिए। छात्रों-युवाओं को
ऐसे हमलों से
निपटने के लिए
आत्मरक्षा और जनरक्षा
हेतु शारीरिक प्रशिक्षण
और मार्शल आर्टस
का प्रशिक्षण देने
का काम क्रान्तिकारी
छात्र-युवा संगठनों
को करना चाहिए।
उन्हें स्पोट्र्स क्लब, जिम,
मनोरंजन क्लब आदि
जैसी संस्थाएँ खड़ी
करनी चाहिए, जहाँ
राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण और
तार्किकता व वैज्ञानिकता
के प्रसार का
काम भी किया
जाये।
11. हमें उदारवादी बुर्जुआ राज्य
को लेकर जनता
में मौजूद सभी
विभ्रमों को खण्डित
करने का काम
करना होगा। हमें
दिखाना होगा कि
किस प्रकार पूँजीवाद
की नैसर्गिक गति
के कारण उदारवादी
या कल्याणकारी बुर्जुआ
राज्य की नियति
में ढह जाना
ही लिखा है।
इसकी नैसर्गिक गति
पतन की तरफ
होती है। फ़ासीवाद
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और राजसत्ता
के ढहने और
पतन की सूरत
में ही पैदा
होता है। वही
स्थिति जो क्रान्तिकारी
सम्भावना को जन्म
देती है, प्रतिक्रियावादी
सम्भावना को भी
जन्म देती है।
हमें उदारवादी पूँजीवाद
की असलियत को
जनता के सामने
हर सम्भव मौके
पर लाते हुए
बताना होगा कि
यह जनता को
कुछ नहीं दे
सकता और यह
लगातार संकट के
दलदल में धाँसता
जायेगा और इसके
द्वारा मिलने वाले श्रम
अधिकार, जनवादी अधिकार, नागरिक
अधिकार लगातार ख़त्म होते
जायेगे।
12. हमें जनवादी, नागरिक व
मानव अधिकारों के
क्षरण और पतन
के ख़िलाफ़ अपने
नागरिक-जनवादी अधिकार संगठनों
के ज़रिये संघर्ष
करना होगा, जो
हम जानते हैं
कि एक हारी
हुई लड़ाई होती
है। लेकिन इसी
हारी हुई लड़ाई
को हम अपनी
लम्बी लड़ाई में
जीत का एक
उपकरण बना सकते
हैं। हमें इन
अधिकारों के हनन
और सिकुड़ते जनवादी
स्पेस पर जनता
के बीच लगातार
प्रचार करना चाहिए
और ख़ास तौर
पर शिक्षित शहरी
मध्यवर्ग के
बीच यह प्रचार
करना चाहिए। इसके
ज़रिेये हमें पूरे
पूँजीवादी जनवाद की असलियत
को जनता के
सामने बेनकाब करना
चाहिए और इसके
बेहतर और ऐतिहासिक
तौर पर प्रगतिशील
सर्वहारा जनवाद के विकल्प
को पेश करना
चाहिए। इसके अलावा,
हमें श्रमिक अधिकारों
के हनन और
पतन पर भी
लगातार संघर्ष और प्रचार
करते हुए राज्य
को मजबूर करना
चाहिए कि वह
श्रमिक अधिकारों की पूर्ति
करे। इसके अतिरिक्त,
हमें सभी अपूर्ण
जनवादी कार्यभारों को पूरा
करने के लिए
संघर्ष करना चाहिए।
जिन देशों में
पूँजीवाद किसी क्रान्ति
के ज़रिये नहीं
आया, उन सभी
देशों में अपूर्ण
जनवादी कार्यभारों की एक
लम्बी सूची है।
हमें इन अधिकारों
के लिए संघर्ष
करना चाहिए। इसके
दो मकसद हैं।
एक तो यह
पूँजीवादी राजसत्ता के ”ब्रीदिंग
स्पेस” को घटाकर
उसके लिए घुटन
भरी स्थितियाँ पैदा
करता है और
दूसरा यह कि
जनवादी कार्यभारों के पूरा
होने के साथ
समाज में तमाम
वर्गों में प्रतिक्रिया
का आधार कमज़ोर
पड़ता है। यही
कारण है कि
अपूर्ण और अधूरे
भूमि सुधारों को
लागू करना भी
क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की एक
माँग बनता है।
यह गाँवों में
प्रतिक्रिया की ज़मीन
को कमज़ोर करता
है और वर्ग
चेतना को उभारता
है। यहाँ एक
बात ग़ौर करने
वाली यह होती
है कि बुर्जुआ
व्यवस्था के बीच
जनवादी अधिकारों की लड़ाई
को लेकर मज़दूर
आन्दोलन में एक
सर्वखण्डनवादी अराजकतावादी नज़रिया कभी-कभी प्रभावी
हो जाता है
और हम सिकुड़ते
जनवादी स्पेस के ख़तरों
को समझ नहीं
पाते हैं। हमें
लगता है कि
कुछ ठोस वर्ग
संघर्ष किया जाये,
नागरिक व जनवादी
अधिकारों पर हमले
के ख़िलाफ संघर्ष
हमें अप्रासंगिक सा
लगने लगता है।
यह बहुत ख़तरनाक
भटकाव है। हंगेरियाई
कम्युनिस्ट जॉर्ज लूकाच ने
इस प्रवृत्ति के
ख़िलाफ़ अपनी ”ब्लम थीसिस”
में आगाह किया
था और इसे
आत्मघाती बताया था। जनवादी
स्पेस के सिकुड़ने
के साथ मज़दूर
वर्ग को गोलबन्द
और संगठित करने
का काम भी
कठिन होता जाता
है। लेनिन ने
यूँ ही नहीं
कहा था कि
बुर्जुआ जनवाद सर्वहारा वर्ग
के लिए सर्वश्रेष्ठ
युद्धभूमि है। इसलिए
मज़दूर आन्दोलन को न
सिर्फ श्रमिक अधिकारों
पर हमले के
ख़िलाफ लड़ना चाहिए, बल्कि
उन्हें नागरिक व जनवादी
अधिकारों पर हमले
के ख़िलाफ भी
लड़ना चाहिए। यह
नागरिक पहचान पर उनका
एक शक्तिशाली दावा
भी होगा जो
राजनीतिक संघर्ष को आगे
ले जाने और
मज़दूर वर्ग में
राजनीतिक चेतना को विकसित
करने का एक
अहम कदम होगा।