बुधवार, 9 जुलाई 2014

तालिबानी हिन्दू बनाने की मुहिम -2

Posted: 02 Jul 2014 09:44 AM PDT
नफरत विधर्मी मुसाफिरों से 
    बड़े-बड़े भाई साहबों के अजमेर में ही गायब हो जाने से हम थोड़े असहज तो हुए, थोड़े से उदास और निराश भी लेकिन जैसे जैसे ट्रेन ने रफ्तार पकड़ी, निराशा का दौर जाता रहा, हमारा जुनून लौट आया, अगले स्टेशन पर स्थानीय लोगों ने हमारा जोरदार स्वागत किया, खाने को फल दिए, चाय पिलाई, बीड़ी, गुटखा भी मिला लोगों को, सब आनंद से सराबोर हो गए, ट्रेन में ज्यादातर कारसेवक ही थे, थोड़े बहुत रेगुलर यात्री भी थे, जो कि सहमे हुए बैठे थे, हमारी बोगी में कुछ मुस्लिम मुसाफिर भी थे, हमने उन्हें देख कर खूब नारे लगाए ‘भारत में यदि रहना होगा वंदेमातरम् कहना होगा।’ हमने उन्हें जी भर कर घूरा भी, इच्छा तो यह थी कि चलती ट्रेन से बाहर फेंक दें इनको, इन्हीं विधर्मी तुर्काे की वजह से हमारे भगवान राम एक जीर्ण शीर्ण ढाँचे में कैद हैं। हमारा देश, हमारे राम और उनकी जन्म स्थली पर मंदिर नहीं बनाने दिया जा रहा है, हम हिन्दू अपने ही देश में दोयम दर्जे के नागरिक हो गए हंै और ये मलेच्छ मजे ले रहे हैं, चार-चार शादियाँ करके बच्चों की फौज पैदा करके अपनी आबादी बढ़ाते जा रहे हैं। पहले देश बाँट दिया, आधे वहाँ चले गए, बाकि हमारी छाती पर मूँग दलने के लिए यहीं रह गए, ऐसे ही तरह-तरह के विचारों के चलते मैं इन मुस्लिम मुसाफिरों के प्रति नफरत के अतिरेक में डूबा हुआ था, उस वक्त मुझमें इतना गुस्सा था कि अगर मेरे हाथ में हथियार होते तो राम जन्म भूमि की मुक्ति से पहले ही इन मुस्लिम, पठान विधर्मियों को जिन्दगी से मुक्त कर देता। कुछ तो माँ भारती का बोझ हल्का होता। हमारी नफरत से घूरती आँखों ने उन्हें जरूर आतंकित किया होगा लेकिन हमें तो उन्हें इस तरह सहमे, सिमटे और भयभीत देखकर बहुत आनंद आया, जीवन में पहली बार लगा कि साले कट्टुओं को हमने औकात दिखा दी। अच्छा हुआ वे लोग चुपचाप ही रहे वरना उस रात कुछ भी हो सकता था। खैर, रात गहराती जा रही थी, धीरे-धीरे नींद पलकों पर हावी होने लगी, भजनों, नारों और उन्मादी गीतों का कोलाहल शांत हो गया, कारसेवक अब सो रहे थे, या यों समझ लीजिए कि सो ही चुके थे, मैंने अपनी उनींदी आँखों से देखा कि बाकी के यात्री अब थोड़ा राहत महसूस कर रहे थे राम के भक्तों से, फिर हम सो गए, एक मीठी सी नींद जिसमे सरयू किनारे बसी भगवान श्री राम की नगरी साकेत में प्रवेश का सुन्दर सा सपना था, जिसे जल्दी ही साकार होना था।

पहली जेल यात्रा
    रात कब बीती पता ही नहीं चला, सुबह-सुबह किसी टुंडला नामक स्टेशन पर मचे भारी शोरगुल ने नींद उड़ाई, कारसेवकों में हड़कंप सा मचा हुआ था, पुलिस ने ट्रेन रुकवा रखी थी शायद आगे नहीं जाने देंगे, जाँच शुरू हुई, सारे कारसेवक धरे गए, टिकटें हमसे ले ली गईं और स्टेशन पर उतार लिया गया। पूरा स्टेशन कारसेवकों से अटा पड़ा था, कल सुबह फिर से गगन भेदते उन्मादी नारे हवा में गुंजायमान थे-सौगंध राम की खाते है, हम मंदिर वही बनाएँगे, रोके चाहे सारी दुनिया, रामलला हम आएँगे, पर हमारी शपथ पूरी न हो सकी, मुल्ला यम की सरकार ने हमें रोक लिया था। हमें गिरफ्तार कर लिया गया। र
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