Posted: 03 Jul 2014 06:32 AM PDT
जहां एक ओर भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए एक जनहित याचिका दायर की गई है वहीं इस मामले में एक और महत्वपूर्ण घटनाक्रम घटित हुआ है। इसका संबंध मुस्लिम समुदाय के पर्सनल लॉ से है। जनसामान्य में यह धारणा बनी हुई है कि मुस्लिम महिलाएं, दूसरे समुदायों की महिलाओं की तुलना में,अन्याय व अत्याचार की अधिक शिकार होती हैं।यद्यपि सभी धर्मों के पर्सनल लॉ, महिलाओं के साथ न्याय नहीं करते तथापि इस मामले में मुस्लिम महिलाओं की हालत बदतर है, ऐसा माना जाता रहा है। मुस्लिम महिलाओं के कई संगठन और संस्थाएं, न्यायपूर्ण पर्सनल लॉ की मांग उठाती रही हैं। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन द्वारा जारी किया गया नया निकाहनामा, मुस्लिम महिलाओं पर पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जकड़ को ढीला करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह आदर्श निकाहनामा,जिसे आंदोलन द्वारा 23 जून 2014 को जारी किया गया है, मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण में निश्चित तौर पर मददगार साबित होगा। इसमें मुस्लिम महिलाओं की कई समस्याओं को हल करने का प्रयास किया गया है और ऐसे कई प्रावधान किए गए हैं जिनकी मांग मुस्लिम महिलाएं लंबे समय से करती आई हैं।निकाहनामा में यह प्रावधान है कि सभी विवाहों का आवश्यक रूप से पंजीकरण हो व किसी पुरूष को बिना वैद्य कारण के, जैसे पहली पत्नी की मृत्यु,दूसरी शादी करने की इजाजत न हो। इसमें कहा गया है कि शादी के लिए लड़कियों की न्यूनतम आयु 18 और लड़कों की 21 वर्ष होनी चाहिए। पति की मुत्यु के बाद भी पत्नि को उसकी ससुराल की संपत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए और उसे अपनी ससुराल में रहने का हक होना चाहिए। तलाक, पति और पत्नि दोनों की उपस्थिति में ही हो सकता है और इसके लिए कानूनी कार्यवाही पूरी करना आवश्यक होगा। अगर कोई महिला अपने पति से तलाक मांगे तो उसकी इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए और तलाक के बाद उसे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति अपने पास रखने का अधिकार होना चाहिए।
यह सोचना गलत है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए इस्लाम जिम्मेदार है। कई इस्लामिक विद्वानों और सुधारकों, जिनमें असगर अली इंजीनियर शामिल हैं, ने इस निकाहनामे को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस निकाहनामे को तैयार करने से पहले हजारों मुस्लिम महिलाओं की राय ली गई और इस तरह यह निकाहनामा, मुस्लिम महिलाओं की आवाज का प्रतिनिधित्व करता है। अगली चुनौती है इस निकाहनामे को पर्सनल लॉ का आधार बनाना। इसके लिए एक बड़े आंदोलन की जरूरत होगी। हमारे संविधान के नीति निदेशक तत्व कहते हैं कि राज्य को समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करना चाहिए। मुस्लिम पर्सनल लॉ का मसला तब चर्चा में आया जब उच्चतम न्यायालय ने शाहबानो मामले में यह आदेश दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। इस निर्णय का विरोध कट्टरपंथी मुल्लाओं ने किया और उनके दबाव में आकर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद में एक नया कानून लाकर निर्णय को पलट दिया। यह एक गंभीर भूल थी।
महिलाओं के कई संगठन,लैंगिक न्याय के लिए लंबे समय से संघर्षरत हैं। पर्सनल लॉ का वास्ता केवल विवाहए तलाक,बच्चों की अभिरक्षा व संपत्ति के उत्तराधिकार से है। इसे हमारे ब्रिटिश शासकों ने लागू किया था। जहां नागरिक व आपराधिक कानून सभी धार्मिक समुदायों के लिए समान हैं वहीं अलग.अलग समुदायों के पर्सनल लॉ, उनके पारंपरिक रीतिरिवाजों पर आधारित हैं और ये रीतिरिवाज, अधिकांश मामलों में,पितृसत्तात्मक हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ के साथ सबसी बड़ी समस्या यह है कि यह पुरूषों के पक्ष में झुका हुआ है। जहां कुछ समय पहले तक केवल महिलाओं और पुरूषों को बराबरी का दर्जा दिए जाने की मांग की जाती थी वहीं अब जोर लैंगिक न्याय पर है।
समान दर्जा देने के लिए विभिन्न परंपराओं के अन्यायपूर्ण कानूनों को मिलाजुलाकर एक नया पर्सनल लॉ बनाया जा सकता है। परंतु भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन केवल इससे संतुष्ट होने को तैयार नहीं है। उसका कहना है कि किसी भी सभ्य समाज में लैंगिक समानता के साथ.साथ लैंगिक न्याय भी होना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि कानून के जरिए लैंगिक समानता सुनिश्चित की जाए और समाजसुधार के रास्ते, समाज की मानसिकता में इस तरह का बदलाव लाया जाए कि समुदाय पर कोई नया कानून थोपे बिना यह सुनिश्चित किया जा सके कि महिलाओं के साथ न्याय हो।
मुस्लिम महिला संगठनों का सबसे अधिक विरोध, समुदाय का कट्टरवादी तबका कर रहा है। मुल्ला.मौलवी नहीं चाहते कि समुदाय पर उनकी पकड़ कमजोर पड़े। सांप्रदायिक हिंसा के कारण उपजी शारीरिक असुरक्षा की भावना ने इस समस्या को और गंभीर कर दिया है। पिछले कुछ दशकों में हुए सांप्रदायिक दंगों में मारे जाने वालों में से 90 प्रतिशत से अधिक मुसलमान रहे हैं जबकि आबादी में उनका हिस्सा 14 फीसदी से भी कम है। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं को गंभीर सेक्स व शारीरिक प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता है। इसके कारण उपजी सामाजिक असुरक्षा की भावना महिला आंदोलन को कमजोर करती है। ऐसा नहीं है कि मुस्लिम महिलाएं सुधार नहीं चाहती या वे पुरूषों के बराबर का दर्जा पाने की इच्छुक नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिम पुरूष, महिलाओं पर अपनी प्रभुता इसलिए जमाए हुए हैं क्योंकि इस्लाम या कुरान उन्हें ऐसा करने की इजाजत देती है। मुख्य मुद्दा यह है कि शारीरिक असुरक्षा की भावना के कारण,मुस्लिम महिलाओं के संगठन अपेक्षाकृत कमजोर हैं और वे अपने समुदाय व समाज के सामने अपनी बात मजबूती से नहीं रख पा रहे हैं। मुस्लिम समुदाय में अनेक ऐसे संगठन व समूह हैं जो लैंगिक समानता के लिए संघर्षरत हैं परंतु सांप्रदायिक हिंसा व उसके सामाजिक.मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण उनका आंदोलन जोर नहीं पकड़ पा रहा है।
हिन्दू दक्षिणपंथी संगठन भी समान नागरिक संहिता लागू किए जाने की मांग करते आ रहे हैं। इसका कारण यह नहीं है कि वे लैंगिक समानता के पक्षधर हैं बल्कि इसका कारण यह है कि वे इस मांग को मुस्लिम समुदाय पर उंगली उठाने के लिए एक राजनैतिक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं। यही कारण है कि समान नागरिक संहिता का हिन्दुत्ववादी एजेण्डे में महत्वपूर्ण स्थान है। इस मुद्दे को एक दूसरे कोण से भी देखा जा सकता है।'समानता' शब्द को सही परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। समानता के लिए केवल विभिन्न अन्यायपूर्ण कानूनों का संग्रह करना काफी नहीं होगा। जरूरत है सभी धर्मों के पर्सनल लॉ को पूरी तरह बदलने की और ऐसे नए कानून बनाने की जो लैंगिक न्याय पर आधारित हों। यह भी आवश्यक है कि इन कानूनों को संबंधित समुदाय के साथ व्यापक विचार विमर्श व बहस के बाद बनाया जाए। और इस बहस व विचार विमर्श में महिलाओं की भागीदारी अवश्य होनी चाहिए क्योंकि वर्तमान कानूनों के जरिये उन्हें ही प्रताडि़त किया जा रहा है।
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन द्वारा जारी आदर्श निकाहनामा सभी समुदायों की महिलाओं को सही रास्ता दिखाता है। इस निकाहनामे को समुदाय की महिलाओं के साथ विस्तृत चर्चा के उपरांत तैयार किया गया है और यह उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को प्रतिबिम्बित करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुसलमानों के अलावा,अन्य समुदायों के पर्सनल लॉ में भी सुधार की आवश्यकता है। और सुधार की इस प्रक्रिया में महिलाओं की सोच और उनकी मांगों को वाजिब महत्व दिया जाना चाहिए। अगर नए पर्सनल लॉ बनते हैं तो इनसे हमारे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा टूटेगा। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के इस कदम का सभी को खुले दिल से स्वागत करना चाहिए। असली प्रजातंत्र में समाज के सभी वर्गों, जिनमें महिलाएं शामिल हैंए के साथ न्याय होना चाहिए। तभी हम यह दावा कर सकेंगे कि हम सचमुच एक स्वतंत्र व न्यायपूर्ण राष्ट्र हैं।
-राम पुनियानी
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