सोमवार, 28 जुलाई 2014
बुधवार, 9 जुलाई 2014
Boss घर की रानी
Boss घर की रानी
मान कर खुद को ;रानी कर रही थी राज
पति बच्चे छोटा सा परिवार
घर की चार दीवारों को मान बैठी संसार
हँसता खेलता भरा पूरा परिवार
परिवार की ख़ुशी में मेरी ख़ुशी थी
कठिन थी राहें फिर भी मुस्करा रही थी
रानी थी पर !करती थी हर काम
मुश्किल था; या आसान
दूध सी काया मुरझा रही थी
पर जीवन के अनुभवों से कंाति-
चेहरे की बढ़ा रही थी
रेलगाड़ी जीवन की कभी धीमी चली
कभी थमी फिर आगे बड़ती चली
जहाज की कप्तान बनी इतरा रही थी
मान कर कप्तान मुश्किलें अपनी बढ़ा रही थी
छोटे से छोटे छेक को कोशिशों से दबा रही थी
जीवन आगे बढ़ा बढ़ता गया
पर उम्र में डहराव आता गया
आवाज़ की कोमलता हो गई कठोर
हँसी तो जैसे चुरा ले गए वक्त के चोर!
पति बच्चे छोटा सा परिवार
घर की चार दीवारों को मान बैठी संसार
हँसता खेलता भरा पूरा परिवार
परिवार की ख़ुशी में मेरी ख़ुशी थी
कठिन थी राहें फिर भी मुस्करा रही थी
रानी थी पर !करती थी हर काम
मुश्किल था; या आसान
दूध सी काया मुरझा रही थी
पर जीवन के अनुभवों से कंाति-
चेहरे की बढ़ा रही थी
रेलगाड़ी जीवन की कभी धीमी चली
कभी थमी फिर आगे बड़ती चली
जहाज की कप्तान बनी इतरा रही थी
मान कर कप्तान मुश्किलें अपनी बढ़ा रही थी
छोटे से छोटे छेक को कोशिशों से दबा रही थी
जीवन आगे बढ़ा बढ़ता गया
पर उम्र में डहराव आता गया
आवाज़ की कोमलता हो गई कठोर
हँसी तो जैसे चुरा ले गए वक्त के चोर!
लोक संघर्ष जून 2014
इशारों को समझ छिड़क कर जान
दो शब्द प्यार के बुझा देते थे प्यास
छोटा सा आँचल ,छोटा सा संसार
बिन बोले ही पढ़ कर मन की बात
आँखों में ही बीत जाती थी रात
दिन बदल गए; रातें सिमट गई
मन की कुछ बातें मन में ही रह गई
ज्यादा बीत गई जिंदगी थोड़ी रह गई
तालिबानी हिन्दू बनाने की मुहिम -2
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लैंगिक न्याय की लड़ाई कई रोड़े हैं राह में
Posted: 03 Jul 2014 06:32 AM PDT

निकाहनामा में यह प्रावधान है कि सभी विवाहों का आवश्यक रूप से पंजीकरण हो व किसी पुरूष को बिना वैद्य कारण के, जैसे पहली पत्नी की मृत्यु,दूसरी शादी करने की इजाजत न हो। इसमें कहा गया है कि शादी के लिए लड़कियों की न्यूनतम आयु 18 और लड़कों की 21 वर्ष होनी चाहिए। पति की मुत्यु के बाद भी पत्नि को उसकी ससुराल की संपत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए और उसे अपनी ससुराल में रहने का हक होना चाहिए। तलाक, पति और पत्नि दोनों की उपस्थिति में ही हो सकता है और इसके लिए कानूनी कार्यवाही पूरी करना आवश्यक होगा। अगर कोई महिला अपने पति से तलाक मांगे तो उसकी इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए और तलाक के बाद उसे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति अपने पास रखने का अधिकार होना चाहिए।
यह सोचना गलत है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए इस्लाम जिम्मेदार है। कई इस्लामिक विद्वानों और सुधारकों, जिनमें असगर अली इंजीनियर शामिल हैं, ने इस निकाहनामे को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस निकाहनामे को तैयार करने से पहले हजारों मुस्लिम महिलाओं की राय ली गई और इस तरह यह निकाहनामा, मुस्लिम महिलाओं की आवाज का प्रतिनिधित्व करता है। अगली चुनौती है इस निकाहनामे को पर्सनल लॉ का आधार बनाना। इसके लिए एक बड़े आंदोलन की जरूरत होगी। हमारे संविधान के नीति निदेशक तत्व कहते हैं कि राज्य को समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करना चाहिए। मुस्लिम पर्सनल लॉ का मसला तब चर्चा में आया जब उच्चतम न्यायालय ने शाहबानो मामले में यह आदेश दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। इस निर्णय का विरोध कट्टरपंथी मुल्लाओं ने किया और उनके दबाव में आकर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद में एक नया कानून लाकर निर्णय को पलट दिया। यह एक गंभीर भूल थी।
महिलाओं के कई संगठन,लैंगिक न्याय के लिए लंबे समय से संघर्षरत हैं। पर्सनल लॉ का वास्ता केवल विवाहए तलाक,बच्चों की अभिरक्षा व संपत्ति के उत्तराधिकार से है। इसे हमारे ब्रिटिश शासकों ने लागू किया था। जहां नागरिक व आपराधिक कानून सभी धार्मिक समुदायों के लिए समान हैं वहीं अलग.अलग समुदायों के पर्सनल लॉ, उनके पारंपरिक रीतिरिवाजों पर आधारित हैं और ये रीतिरिवाज, अधिकांश मामलों में,पितृसत्तात्मक हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ के साथ सबसी बड़ी समस्या यह है कि यह पुरूषों के पक्ष में झुका हुआ है। जहां कुछ समय पहले तक केवल महिलाओं और पुरूषों को बराबरी का दर्जा दिए जाने की मांग की जाती थी वहीं अब जोर लैंगिक न्याय पर है।
समान दर्जा देने के लिए विभिन्न परंपराओं के अन्यायपूर्ण कानूनों को मिलाजुलाकर एक नया पर्सनल लॉ बनाया जा सकता है। परंतु भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन केवल इससे संतुष्ट होने को तैयार नहीं है। उसका कहना है कि किसी भी सभ्य समाज में लैंगिक समानता के साथ.साथ लैंगिक न्याय भी होना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि कानून के जरिए लैंगिक समानता सुनिश्चित की जाए और समाजसुधार के रास्ते, समाज की मानसिकता में इस तरह का बदलाव लाया जाए कि समुदाय पर कोई नया कानून थोपे बिना यह सुनिश्चित किया जा सके कि महिलाओं के साथ न्याय हो।
मुस्लिम महिला संगठनों का सबसे अधिक विरोध, समुदाय का कट्टरवादी तबका कर रहा है। मुल्ला.मौलवी नहीं चाहते कि समुदाय पर उनकी पकड़ कमजोर पड़े। सांप्रदायिक हिंसा के कारण उपजी शारीरिक असुरक्षा की भावना ने इस समस्या को और गंभीर कर दिया है। पिछले कुछ दशकों में हुए सांप्रदायिक दंगों में मारे जाने वालों में से 90 प्रतिशत से अधिक मुसलमान रहे हैं जबकि आबादी में उनका हिस्सा 14 फीसदी से भी कम है। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं को गंभीर सेक्स व शारीरिक प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता है। इसके कारण उपजी सामाजिक असुरक्षा की भावना महिला आंदोलन को कमजोर करती है। ऐसा नहीं है कि मुस्लिम महिलाएं सुधार नहीं चाहती या वे पुरूषों के बराबर का दर्जा पाने की इच्छुक नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिम पुरूष, महिलाओं पर अपनी प्रभुता इसलिए जमाए हुए हैं क्योंकि इस्लाम या कुरान उन्हें ऐसा करने की इजाजत देती है। मुख्य मुद्दा यह है कि शारीरिक असुरक्षा की भावना के कारण,मुस्लिम महिलाओं के संगठन अपेक्षाकृत कमजोर हैं और वे अपने समुदाय व समाज के सामने अपनी बात मजबूती से नहीं रख पा रहे हैं। मुस्लिम समुदाय में अनेक ऐसे संगठन व समूह हैं जो लैंगिक समानता के लिए संघर्षरत हैं परंतु सांप्रदायिक हिंसा व उसके सामाजिक.मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण उनका आंदोलन जोर नहीं पकड़ पा रहा है।
हिन्दू दक्षिणपंथी संगठन भी समान नागरिक संहिता लागू किए जाने की मांग करते आ रहे हैं। इसका कारण यह नहीं है कि वे लैंगिक समानता के पक्षधर हैं बल्कि इसका कारण यह है कि वे इस मांग को मुस्लिम समुदाय पर उंगली उठाने के लिए एक राजनैतिक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं। यही कारण है कि समान नागरिक संहिता का हिन्दुत्ववादी एजेण्डे में महत्वपूर्ण स्थान है। इस मुद्दे को एक दूसरे कोण से भी देखा जा सकता है।'समानता' शब्द को सही परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। समानता के लिए केवल विभिन्न अन्यायपूर्ण कानूनों का संग्रह करना काफी नहीं होगा। जरूरत है सभी धर्मों के पर्सनल लॉ को पूरी तरह बदलने की और ऐसे नए कानून बनाने की जो लैंगिक न्याय पर आधारित हों। यह भी आवश्यक है कि इन कानूनों को संबंधित समुदाय के साथ व्यापक विचार विमर्श व बहस के बाद बनाया जाए। और इस बहस व विचार विमर्श में महिलाओं की भागीदारी अवश्य होनी चाहिए क्योंकि वर्तमान कानूनों के जरिये उन्हें ही प्रताडि़त किया जा रहा है।
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन द्वारा जारी आदर्श निकाहनामा सभी समुदायों की महिलाओं को सही रास्ता दिखाता है। इस निकाहनामे को समुदाय की महिलाओं के साथ विस्तृत चर्चा के उपरांत तैयार किया गया है और यह उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को प्रतिबिम्बित करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुसलमानों के अलावा,अन्य समुदायों के पर्सनल लॉ में भी सुधार की आवश्यकता है। और सुधार की इस प्रक्रिया में महिलाओं की सोच और उनकी मांगों को वाजिब महत्व दिया जाना चाहिए। अगर नए पर्सनल लॉ बनते हैं तो इनसे हमारे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा टूटेगा। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के इस कदम का सभी को खुले दिल से स्वागत करना चाहिए। असली प्रजातंत्र में समाज के सभी वर्गों, जिनमें महिलाएं शामिल हैंए के साथ न्याय होना चाहिए। तभी हम यह दावा कर सकेंगे कि हम सचमुच एक स्वतंत्र व न्यायपूर्ण राष्ट्र हैं।
-राम पुनियानी
तालिबानी हिन्दू बनाने की मुहिम -3
Posted: 04 Jul 2014 06:30 AM PDT
आर एस एस की शाखा में
इस हादसे से हमने कोई सबक नहीं लिया, कारसेवा का जूनून भले ही उतर गया हो लेकिन देशभक्ति का ज्वर चढ़ा ही रहा, यह मात्र 13 साल की उम्र में ही चढ़ गया था, जब मैं कक्षा 6 का विद्यार्थी था, तभी देशभक्ति के सबसे प्रमुख स्वघोषित स्कूल आर.एस.एस. में भर्ती हो गया था। हुआ यह कि राजकीय माध्यमिक विद्यालय मोड़ का निम्बाहेड़ा, जहाँ मैं अध्ययनरत था, वहाँ के भूगोल विषय के अध्यापक महोदय बंशी लाल सेन ने हमारे गाँव के खेल मैदान में हम बच्चों को खेल खिलाना शुरू किया। वे बहुत अच्छा गाते भी थे और व्यायाम भी करवाते थे, हमें बहुत अच्छा लगता था। शुरू में खेल, फिर थोड़ा व्यायाम, एक दो गीत और कुछ अच्छी-अच्छी बातें, कुछ-कुछ बातें समझ में नहीं आती थीं, कुछ बातें उलझन भी पैदा करती थीं, खास तौर पर जब वे क्लास में भूगोल पढ़ाते हुए कहते थे कि-सूर्य आग का एक गोला है, जिसके पास कोई भी नहीं जा सकता है, अगर गया तो नष्ट हो जाएगा। मगर वे खेल के वक्त शाखा में सूर्य नमस्कार करवाते थे, इस दौरान ओऽम् सूर्याय नमः, रवये नमः, ओऽम् सवित्रे सूर्य नारायणाय नमः का मंत्रोचार कराते थे और हनुमानजी द्वारा सूर्य को मुँह में निगल जाने की कहानी बताते हुए सगर्व कहते थे कि-ऐसे थे हमारे बजरंग बली, जिन्होंने सूर्य भगवान को ही निगल लिया, पूरे ब्रह्माण्ड पर अँधेरा छा गया था। मैं इस बात से उलझन महसूस करने लगा, एक दिन हिम्मत करके पूछ लिया कि- गुरुदेव सूर्य देवता हंै, या आग का गोला? उनका जवाब पूर्णतः संघ परिवार की चिंतन प्रक्रिया का साक्षात् सबूत देता हुआ सामने आया, वे बोले-भैयाजी, शाखा में सूर्य देवता हैं लेकिन विद्यालय में वह आग का गोला हैं, मैं और अधिक भ्रमित हो गया, मैंने उनसे कहा कि-फिर हनुमान जी ने कैसे उन्हें निगला? उनका उत्तर था-बजरंग बली तो अतिशय बलशाली थे, सूर्य तो सिर्फ आग का एक गोला मात्र था, उन्होंने उसे न केवल मुँह में ले लिया बल्कि वे तो उसे चबा कर निगल ही जाना चाहते थे, सब लोकों पर छा गए अंधकार के बाद देवताओं ने आकर प्रार्थना की तब कहीं जा कर हनुमान जी ने सूर्य को उगला।
अन्ध आस्था
मेरी आस्था हनुमानजी में अत्यधिक दृढ़ हो गई, मुझे भूगोल विषय बकवास लगने लगा। अब मैं भूगोल के पीरियड में भी मन ही मन हनुमान चालीसा दोहराता रहता था, मुझे मालूम था कि इस विषय में कोई दम नहीं है, दमदार तो बजरंग बली हैं। वैसे भी गुरूजी ने एक दिन शाखा में कहा था कि संशय करने वाले लोग विनाश को प्राप्त हो जाते है (संशयात्मा विनष्यति), फिर मैंने संदेह करना छोड़ दिया, श्रद्धा का नया दौर मेरी किशोरावस्था में ही प्रारंभ हो गया। भूगोल के गुरूजी ने मुझे विज्ञान से भी विमुख कर डाला। अब मेरी आस्था धर्म कर्म में बढ़ने लगी, वैसे भी गुरूजी ने शाखा में बता ही दिया था कि पूरे विश्व में हमारा धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है, तो यह खेल, गीत और व्यायाम तथा थोड़ी सी देर जो बातचीत होती थी रोज, उसका नाम शाखा था और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा थी। यह आर.एस.एस. की हमारे गाँव में एक ब्रांच थी जो नई नई खुली थी और हम बाल गोपाल उस शाखा की टहनियाँ थे।
हमारे गाँव की शाखा में हम बच्चों की संख्या तकरीबन 50 के आसपास थी ,सभी जातियों के बच्चे इसमें आते थे, उन जातियों के भी जो हम दलितों को नीचा समझते थे और सीधे मुँह बात भी नहीं करते थे, सब एक दूसरे को जी कह कह कर पुकारते थे, मैं भी भँवर से भँवर जी हो गया था और भँवर जी भाई साहेब होने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा था। शाखा में मैंने अप्रत्याशित सफलताएँ प्राप्त कर लीं, मैं गणनायक से मुख्य शिक्षक बना और कार्यवाह बन कर शीघ्र ही जिला कार्यालय जा पहँुचा, जहाँ पर मुझे जिला कार्यालय प्रमुख की जिम्मेदारी मिल गई
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
इस हादसे से हमने कोई सबक नहीं लिया, कारसेवा का जूनून भले ही उतर गया हो लेकिन देशभक्ति का ज्वर चढ़ा ही रहा, यह मात्र 13 साल की उम्र में ही चढ़ गया था, जब मैं कक्षा 6 का विद्यार्थी था, तभी देशभक्ति के सबसे प्रमुख स्वघोषित स्कूल आर.एस.एस. में भर्ती हो गया था। हुआ यह कि राजकीय माध्यमिक विद्यालय मोड़ का निम्बाहेड़ा, जहाँ मैं अध्ययनरत था, वहाँ के भूगोल विषय के अध्यापक महोदय बंशी लाल सेन ने हमारे गाँव के खेल मैदान में हम बच्चों को खेल खिलाना शुरू किया। वे बहुत अच्छा गाते भी थे और व्यायाम भी करवाते थे, हमें बहुत अच्छा लगता था। शुरू में खेल, फिर थोड़ा व्यायाम, एक दो गीत और कुछ अच्छी-अच्छी बातें, कुछ-कुछ बातें समझ में नहीं आती थीं, कुछ बातें उलझन भी पैदा करती थीं, खास तौर पर जब वे क्लास में भूगोल पढ़ाते हुए कहते थे कि-सूर्य आग का एक गोला है, जिसके पास कोई भी नहीं जा सकता है, अगर गया तो नष्ट हो जाएगा। मगर वे खेल के वक्त शाखा में सूर्य नमस्कार करवाते थे, इस दौरान ओऽम् सूर्याय नमः, रवये नमः, ओऽम् सवित्रे सूर्य नारायणाय नमः का मंत्रोचार कराते थे और हनुमानजी द्वारा सूर्य को मुँह में निगल जाने की कहानी बताते हुए सगर्व कहते थे कि-ऐसे थे हमारे बजरंग बली, जिन्होंने सूर्य भगवान को ही निगल लिया, पूरे ब्रह्माण्ड पर अँधेरा छा गया था। मैं इस बात से उलझन महसूस करने लगा, एक दिन हिम्मत करके पूछ लिया कि- गुरुदेव सूर्य देवता हंै, या आग का गोला? उनका जवाब पूर्णतः संघ परिवार की चिंतन प्रक्रिया का साक्षात् सबूत देता हुआ सामने आया, वे बोले-भैयाजी, शाखा में सूर्य देवता हैं लेकिन विद्यालय में वह आग का गोला हैं, मैं और अधिक भ्रमित हो गया, मैंने उनसे कहा कि-फिर हनुमान जी ने कैसे उन्हें निगला? उनका उत्तर था-बजरंग बली तो अतिशय बलशाली थे, सूर्य तो सिर्फ आग का एक गोला मात्र था, उन्होंने उसे न केवल मुँह में ले लिया बल्कि वे तो उसे चबा कर निगल ही जाना चाहते थे, सब लोकों पर छा गए अंधकार के बाद देवताओं ने आकर प्रार्थना की तब कहीं जा कर हनुमान जी ने सूर्य को उगला।
अन्ध आस्था
मेरी आस्था हनुमानजी में अत्यधिक दृढ़ हो गई, मुझे भूगोल विषय बकवास लगने लगा। अब मैं भूगोल के पीरियड में भी मन ही मन हनुमान चालीसा दोहराता रहता था, मुझे मालूम था कि इस विषय में कोई दम नहीं है, दमदार तो बजरंग बली हैं। वैसे भी गुरूजी ने एक दिन शाखा में कहा था कि संशय करने वाले लोग विनाश को प्राप्त हो जाते है (संशयात्मा विनष्यति), फिर मैंने संदेह करना छोड़ दिया, श्रद्धा का नया दौर मेरी किशोरावस्था में ही प्रारंभ हो गया। भूगोल के गुरूजी ने मुझे विज्ञान से भी विमुख कर डाला। अब मेरी आस्था धर्म कर्म में बढ़ने लगी, वैसे भी गुरूजी ने शाखा में बता ही दिया था कि पूरे विश्व में हमारा धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है, तो यह खेल, गीत और व्यायाम तथा थोड़ी सी देर जो बातचीत होती थी रोज, उसका नाम शाखा था और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा थी। यह आर.एस.एस. की हमारे गाँव में एक ब्रांच थी जो नई नई खुली थी और हम बाल गोपाल उस शाखा की टहनियाँ थे।
हमारे गाँव की शाखा में हम बच्चों की संख्या तकरीबन 50 के आसपास थी ,सभी जातियों के बच्चे इसमें आते थे, उन जातियों के भी जो हम दलितों को नीचा समझते थे और सीधे मुँह बात भी नहीं करते थे, सब एक दूसरे को जी कह कह कर पुकारते थे, मैं भी भँवर से भँवर जी हो गया था और भँवर जी भाई साहेब होने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा था। शाखा में मैंने अप्रत्याशित सफलताएँ प्राप्त कर लीं, मैं गणनायक से मुख्य शिक्षक बना और कार्यवाह बन कर शीघ्र ही जिला कार्यालय जा पहँुचा, जहाँ पर मुझे जिला कार्यालय प्रमुख की जिम्मेदारी मिल गई
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
अब किस मुंह से ‘आपकी अदालत’ में फैसले सुनाओगे शर्माजी ?
Posted: 05 Jul 2014 09:15 PM PDT
आप रजत शर्मा ही तो थे जब आपने लिखा था “कोई करोड़ो दर्शकों से पूछे कि उन्हें न्याय दिलाने के लिए न्यूज चैनल्स कैसे दिन-रात लड़तें हैं”.यह लेख आपने भास्कर में लिखा था. 28 नवम्बर 2011 को. आपके आर्टिकल का शीर्षक था- “नसीहत देने वालों की कमी नहीं”.
मुकेश कुमार
रजत शर्मा जी आपके इस करोड़ों लोगों में आपकी चैनल की एंकर तनु शर्मा क्यों नहीं है? याद दिलाऊं की तनु शर्मा ने इंडिया टीवी के कुछ मर्द व महिला पत्रकारों के उत्पीड़न से तंग कर आत्म हत्या तक की कोशिश की थी पर बच गयीं.शर्मा जी,तनु ने आरोप लगाया है की इंडिया टीवी की एक वरिष्ठ सहयोगी ने उन्हें “राजनेताओं और कॉरपोरेट जगत के बड़े लोगों को मिलने” और “ग़लत काम करने को बार-बार कहा”. तनु के मुताबिक़, “इन अश्लील प्रस्तावों के लिए मना करने के कारण परेशान किया जाने लगा, इसकी शिकायत एक और सीनियर से की तो उन्होंने भी मदद नहीं की, बल्कि कहा कि ये प्रस्ताव सही है.
अब आप की अदालत कंहा लगाना है,शर्मा जी?
यह भी पढ़ें- रजत शर्मा की गिरफ्तारी की मांग
क्यों जो चैनल करोड़ों लोगों की न्याय के लिए लड़ते रहते हैं वो तनु शर्मा के नाम पर खामोश है?क्यों नहीं कोई खबरिया चैनल इसको खबर बना रहा है?क्यों नहीं कोई टी.वी चैनल इस पर पैकेज बना रहा है? क्या यह इस कथन को सच नहीं कर रहा है की ‘एक वाचडॉग दुसरे वाचडॉग को नहीं काटता’.
गीतिका शर्मा,जिया खान और वैष्णवी के मामलों से यह कितना अलग मामला रहा होगा की इसको तानने की फुरशत नहीं रही आपको?हमेशा सरोकार और न्याय की बात करने वाले पत्रकारों को किस तरह आपने हड़का या धमका दिया है? पत्रकारों के हित के लिए बनी कोई संस्था क्यों नहीं इसके लिए कुछ करती दिख रही है? क्यों बेबस है इस मामले में?
दूसरों के लिए लगभग चीखते हुए स्टूडियों में लड़ाई लड़ते हो,जब अपनी पर आई तो तुम उसको टिकर लायक भी नहीं समझते? जब वैषणवी नाम की लड़की ने अभिषेक+ऐश की शादी के समय अपने हाथ की नसें काटी थीं तब तो तुम बड़े चौड़े होकर उसकी व्यथा-कथा बता रहे थे,अब कंहा हैं आपके सरोकार? मालिक के तलवे चाट रहा है तेरा सरोकार ? क्या-क्या नहीं दिखाया,अगर यह दिखा -बता देते तो क्या हो जाता ?हाथ बंधे हुए हैं या हाथ ही नहीं है ?
-इंडिया टी.वी. की समाचार वाचिका द्वारा आत्महत्या की कोशिश यह तो संकेत देता ही है की भारतीय खबरिया चैनलों में सब कुछ अच्छा नहीं है.यह गुलाबी जितना दूर से दिखता है उतना है नहीं.इसका भी एक काला स्याह पक्ष है.पर टी. वी. मीडिया में एक खबर नहीं है? फर्ज करो अगर यही घटना किसी भी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सरकारी,कंपनी या मल्टी नेशनल कंपनी के किसी कर्मचारी द्वारा किया जाता तो इनका रवैया यही रहता? अगर गुड़गांव की किसी कंपनी की यह घटना रहती तो इसको तानते नहीं? तब अपने हाथ हिला-हिला कर देश-दुनिया-समाज की ऐसी की तैसी नहीं करते?अब जब अपनी बजबजाती सड़ांध को बताने-दिखाने की बारी आई तो क्या हुआ?दूसरों के लिए न्याय और सरोकार की बात करने वाले अब अपने न्याय और सरोकार की बात पर आई तो यह भोथरी क्यों होने लगी?तुम पत्रकारिता के आलावा सब कुछ करते हो पर वो नहीं जिसका तुम दावा करते हो?गीतिका शर्मा के केस को तुम लोगों ने कैसे ताना था?अब क्यों खामोश हो?
सुसाइड नोट
पीपली लाइव के नत्था को कवर करने के लिए सारी मीडिया आ गई थी,क्योकिं वो पहला लाइव सुसाइडर था.आज जब तनु शर्मा ने फेसबुक पर लाइव सुसाइड नोट लिखा तब भी उतना ही मसाला था.तब क्यों चूक गए टी.आर.पी लेने से? अपनी सड़ांध दिखाना नहीं चाहते?दूसरों के एम एम एस (MMS)मजे लेकर दिखाते हो. अपने समय में नैतिकता याद आती है?
किसी कंपनी के कर्मचारी की छटनी समाचार होती है और मीडिया के कर्मचारियों की छटनी कोई समाचार नहीं है?नेतायों के आर्थिक घोटाले समाचार हैं पर आपके घोटाले समाचार नहीं हैं?आप अपने चैनल में काम करने वाले महिलायों का उत्पीड़न (शारीरिक +मानसिक)करो तो ठीक और अगर यह कोई और करे तो तानने लगते हो खबर की तंबू ? अब जब आपके अन्दर की सड़ांध को दिखाने वाली गटर के मुहाने पर एक छोटी सी नल खोलने का काम तनु ने किया तो इसको कवर करने में सांप क्यों सूंघ गया?दूसरे को कठघरे में बैठा कर सवाल करते हो तो अब कंहा गया आपका ज़मीर,अब क्यों नहीं अपने को कठघरे में रखकर सवाल पूछते हो?
चैनल्स में सड़ांध
बिना ड्राइवर की कार,राखी-मीका,जुली-मटुकनाथ,प्
हो सकता है की यह गलत कदम हो जो उस एंकर ने उठाया हो,उसके पास शायद कोई और उपाय ही न बचा हो? आप इतने शक्तिशाली तो हो ही की उसके किसी भी क़ानूनी प्रयास को भोथरा कर देते.अब तक आप हर किसी की पोल खोलते हो आखिर अब तक आपकी पोल क्यों नहीं खुली? अब खुली है तो उसको तानते नहीं हो? अब अपने दिल का बोझ हल्का कर लो शर्मा जी,आज अपने गुनाह की गिनती कर लो.शायद हल्का हो जाये जमीर,और आईना के सामने शर्मिंदा न होना पड़े.
रजत शर्म (शर्मा) जी के नाम में ही शर्म है तो यह उनके लिए करने की बात नहीं है,वैसे भी अपनी अदालत लगाने वाले अपनी बीबी को तो बचा ही लेंगें. क्या वजह है की रितु का नाम गायब होता जा रहा है पुरे बहस से?रजत सच में आप बड़े वाले हो ? खबरिया चैनल वालों आपको नींद आती होगी,जब अपने ही साथ का कोई बंदा /बन्दी मीडिया हाउस के प्रभुओं की वजहों से आत्महत्या करने की कोशिश करता हो और उसकी न तो खबर बना पातें न टिकर?
यही काम किसी और संस्था या हाउस के बंदा/बन्दी ने किया होता तो क्या आप इसी तरह चुप्प रहते? माइक लेकर जब दूसरे की निजता की बाप-भाई (“माँ-बहन” कहना नारीवादी सोच के विरुद्ध हो सकती है) करते रहते हो तब कुछ समझ में आता है?याद रखो अगर आज तुम अपनी और सिर्फ अपनी चिंता कर रहे हो तो याद रखो कल तेरी चिंता कोई भी नहीं रखेगा.इस मामले को दबाने और रफा दफा करने के कितने प्रयास हो रहें होगें यह इसी से पता चलता है की इस बहस से रजत शर्मा की बीबी रितु का नाम गायब होता जा रहा है. क्या उसकी कीमत पर और किसी की बलि चढ़ाई जाएगी?इसका मतलब यही है की जो प्रभु वर्ग है वो कुछ भी करेगा और आप कुछ नहीं कर पायेंगें।
मुकेश कुमार पंजाब विश्वविद्यालय में मीडिया रिसर्च स्कालर हैं. उनसे mukesh29kumar@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है
साभार - naukarshahi.in/
देश के सम्मुख चुनौतियां
Posted: 08 Jul 2014 05:35 AM PDT
ऐसा कहा जाता है कि भारत,दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है। हमारे दक्षिण एशियाई पड़ोसियों की तुलना में हमारे देश में प्रजातंत्र का रिकार्ड बहुत अच्छा रहा है। देश की सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद, पिछले 67 सालों से हमारे देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था जीवित है।
अंग्रेजों के राज में भारत में सामंती ताकतों का बोलबाला था। ये सामंती ताकतें लैंगिक, जातिगत व वर्गीय पदानुक्रम की हामी थीं। सामंती परंपराओं और संस्कृति के कारण, उस समय यह 'स्वाभाविक' माना जाता था कि दलितों और महिलाओं को दबाकर रखा जाए,उन्हें शिक्षा और धार्मिक गतिविधियों से दूर रखा जाए और सभी समुदायों को उनके पारंपरिक काम.धंधे ही करने पर मजबूर किया जाए। उस दौर में दमित लोगों से बिना वेतन दिए काम करवाना आम था। अंग्रेज शासकों ने अपनी मजबूरियों के चलते कुछ परिवर्तन व सुधार समाज पर थोपे, जिनके नतीजे में सामाजिक ऊँचनीच व सामंती परंपराएं और संस्कृति कुछ हद तक कमजोर हुईं। कुछ शहरी क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने की इजाजत दी गई। उद्योगों को श्रमिकों की जरूरत थी और जो लोग गांवों की जातिगत व्यवस्था को तोड़कर,शहरों में आ सके उन्हें औद्योगिक श्रमिकों के रूप में रोजगार मिला। यद्यपि सैद्धान्तिक तौर पर दलितों और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए गए थे तथापि उनके लिए जाति व्यवस्था के बंधन को तोड़कर शिक्षा पाना आसान नहीं था। बहुत कम संख्या में दलित और महिलाएं शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो सके। महत्वाकांक्षी मध्यमवर्ग के युवा इंग्लैण्ड जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने लगे और उनमें से कई ने आईसीएस की परीक्षा भी पास की। इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान वे धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और स्वतंत्रताए समानता व बंधुत्व के उदारवादी मूल्यों से परिचित हुए। इसी शिक्षित वर्ग ने बाद में आमजनों को संगठित किया और आजादी की जंग शुरू की। ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत की अवधारणा उपजी। हमारे औपनिवेशिक शासक स्वयं को वंचित वर्ग के भारतीयों और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के रक्षक के रूप में प्रस्तुत करते थे। औपनिवेशिक शासकों से मुक्ति पाने के लिए भारत की सभी जातियों,वर्गों और क्षेत्रों के लोगों को एक करना आवश्यक था। वंचित वर्गों व मध्यम जातियों को एक करने के लिए कांग्रेस ने मंदिर प्रवेश आंदोलनों का समर्थन किया। उसके नेताओं ने छुआछूत प्रथा का विरोध किया और यह आश्वासन दिया कि स्वतंत्र भारत में वंचित वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जायेगा। ये सभी कदम इसलिए उठाए गए ताकि जनता में यह संदेश जाए कि स्वतंत्र भारत में सभी नागरिक समान और स्वतंत्र होंगे, उन्हें न्याय मिलेगा और उन्हें गरिमापूर्ण जीवन बिताने का हक होगा। गांधी जी दो चीजों को भारत की स्वतंत्रता की राह में रोड़ा मानते थे.अछूत प्रथा और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बैरभाव। उनके विचार में जब तक ये दोनों समस्याएं हल नहीं होतीं तब तक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं था। भारत का संविधान, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में से एक है। वह अपने सभी नागरिकों को समानता व न्याय की गारंटी देता है व उसमें सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों व अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। परंतु समस्या यह है कि सभी धार्मिक, जातीय, नस्लीय व भाषायी समूहों ने अपनी.अपनी परंपराओं,रीति.रिवाजों और अलग पहचान को कायम रखने के लिए कमर कस ली है। सभी समुदायों के उदारवादी तत्व उन सामंती परंपराओं, रीतिरिवाजों व धार्मिक.सांस्कृतिक पहचानों को थोपे जाने का विरोध करते हैंए जिनका उद्देश्य विभिन्न समुदायों को एकसार बनाना है। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन और मुस्लिम समुदाय का श्रेष्ठी वर्ग यह नहीं चाहता कि संविधान में दी गई स्वतंत्रताए समानता व न्याय की गारंटी को राज्य पूरा करे। वे चाहते हैं कि राज्य, उनके सामंती विशेषाधिकारों, सामाजिक पदानुक्रम में उनकी उच्च स्थिति व उनकी संकीर्ण परंपराओं व रीति.रिवाजों का रक्षक बने। यद्यपि श्रेष्ठी वर्ग, जो अपने समुदाय का प्रतिनिधि होने का दावा करता हैए संख्याबल की दृष्टि से बहुत छोटा है परंतु उसके पास ढेर सारे संसाधन हैं। उसका समुदाय के शैक्षणिक संस्थानों व आराधना स्थलों पर कब्जा है और पुरोहित वर्ग, धर्मशास्त्र और यहां तक कि ईश्वर पर उनकी प्रभुता है। संविधान के अंतर्गत प्रजातांत्रिक राज्य का यह कर्तव्य था कि वह उदारवादियों के अधिकारों की रक्षा करे और श्रेष्ठी वर्ग को अपने.अपने समुदायों पर संप्रदायवादी पहचानें थोपने की इजाजत न दे।
अर्थव्यवस्था
जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब उसकी अर्थव्यवस्था श्रमप्रधान कृषि पर आधारित थी और उसकी आबादी के लगभग 40 प्रतिशत हिस्से को, जिनमें छोटे किसान और खेतिहर मजदूर शामिल थे,भरपेट खाना भी नहीं मिलता था। इसका कारण यह नहीं था कि कृषि उत्पादन कम था बल्कि इसका कारण यह था कि सामंती ताकतों का अतिशेष उत्पादन पर कब्जा था। नवस्वतंत्र भारत के सामने चुनौती यह थी कि वह कैसे एक औद्योगिकृत राष्ट्र बने। घरेलू बचत की दर बहुत कम थी व इस कारण पूंजी निर्माण नहीं हो रहा था। निजी निवेशकों के लिए स्टील, खनन, टेलिकॉम, बीमा व बिजली उत्पादक संयंत्रों जैसे उद्योगों की स्थापना करना असंभव था। इस कारण इन उद्योगों का विकास सार्वजनिक क्षेत्र में किया गया। सन् 1990 के दशक के बाद से देश की अर्थव्यवस्था की दिशा पलट गई। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने देश की अर्थव्यवस्था में संस्थागत सुधार के लिए ऋण दिया परंतु यह ऋण कई शर्तों के साथ दिया गया। भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हो गया और सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनियों का निजीकरण कर दिया गया। इससे उन औद्योगिक घरानों को बेतहाशा लाभ हुआ जो सत्ताधारी राजनीतिज्ञों के नजदीक थे। जो विदेशी निवेशक भारत में पैसा लगा रहे थे वे भरपूर मुनाफा कमाना और भारत के आर्थिक संसाधनों का जमकर दोहन करना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि पर्यावरण और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा संबंधी कानून कड़ाई से लागू किए जायें। राज्य ने उनका साथ दिया और किसानों, दलितों, आदिवासियों, मछुआरों और अन्य कमजोर तबकों को उनकी जमीन व रोजगार से वंचित करए अरबपति उद्योगपतियों को बहुत कम कीमत पर भूमि प्रदान की। भारत की अर्थव्यवस्था सन् 1990 के दशक से लेकर 21वीं सदी के पहले दशक तक 8.9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की उच्च दर से बढ़ी। परंतु इस उच्च आर्थिक वृद्धि दर से केवल बड़े औद्योगिक घरानों और विदेशी निवेशकों को फायदा हुआ। मध्यम वर्ग का आकार बढ़ गया और उसके सदस्यों को सूचना प्रौद्योगिकी व उससे जुड़े अन्य उद्योगों में उच्च वेतन पर रोजगार मिला। परंतु इन अपवादों को छोड़करए उच्च आर्थिक वृद्धि दर से किसी को लाभ नहीं पहुंचा। देश की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था से केवल मुठ्ठी भर लोग लाभांवित हुए। महाराष्ट्र,गुजरात और आंध्रप्रदेश में किसानों की आत्महत्याएं जारी रहीं। आंध्रप्रदेश में बड़ी संख्या में बुनकरों ने मौत को गले लगा लिया क्योंकि वे उन पर लदे कर्जे के बोझ से मुक्ति पाने में असमर्थ थे। अर्जुन सेनगुप्ता रपट के अनुसार, 80 प्रतिशत से अधिक भारतीयों की आय 2 डालर प्रतिदिन से भी कम थी। सन् 2011.12 में गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में 25.7, शहरी क्षेत्रों में 13.7 और कुल मिलाकर 21.9 था। परंतु यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि गरीबी की रेखा की परिभाषा यह थी कि शहरी क्षेत्रों में जो व्यक्ति प्रतिदिन 32 रूपए से अधिक और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रूपए से अधिक खर्च करता है, वह गरीब नहीं है। बढ़ती हुई आर्थिक असमानताओं ने समाज पर गहरा प्रभाव डाला। जैसे.जैसे सरकार ने अपना आर्थिक घाटा कम करने के लिए कृषिए ऊर्जा,चिकित्सा,शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में अनुदान में कटौती करनी प्रारंभ की,सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग ने इन क्षेत्रों में प्रवेश कर लिया, जिससे उसकी ताकत बढ़ी, जबकि विभिन्न समुदायों के उदारवादी तत्व और कमजोर हुए।
चुनौतियां
हमारे प्रजातंत्र और कानून के राज को इस समय सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग और कार्पोरेट सेक्टर के धनकुबेर पूंजीपतियों से मिल रही है। सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग की इच्छा अपने.अपने स्वर्णयुग में लौटने की है, जिसमें सामंती मूल्यों, परंपराओं और रीतिरिवाजों का बोलबाला होगा और जिसमें व्यक्ति की समाज में स्थिति का निर्धारण, उसके परिवार, जाति व लिंग से होगा। वे आधुनिक उपभोक्तावाद और आरामदायक जीवन की सभी सुविधाएं चाहते हैं परंतु इसके साथ ही वे चाहते हैं कि समाज काए व्यक्ति के जीवन पर कड़ा नियंत्रण रहे और हर व्यक्ति,उसके जन्म पर आधारित, पूर्वपरिभाषित कर्तव्यों का पालन करे। वे अपने प्रभाव क्षेत्र में लगातार वृद्धि करना चाहते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा विशेषाधिकार चाहते हैं। वे अपने समुदाय को सुरक्षा प्रदान करने और'दूसरे समुदाय' पर उसकी श्रेष्ठता स्थापित करने के नाम पर अपने समर्थकों के राजनैतिक अधिकारों में कटौती करना चाहते हैं। वे 'दूसरी दुनिया'में मिलने वाले सुख या अगले जन्म में मिलने वाले उच्च सामाजिक दर्जे के नाम पर अपने समर्थकों को भरमाते हैं। संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की उनके लिए कोई कीमत ही नहीं है। वे तो संसद की संस्था की विश्वसनीयता पर भी उंगली उठाते हैं। वे कहते हैं कि आस्था, संविधान और प्रजातंत्र से ऊपर है। मुसलमानों का सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग यह दावा करता है कि शरीयत अपरिवर्तनीय है और उससे कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। वे जानबूझकर इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि मानव हमेशा से ईश्वरीय वचनों को समझने और उनका विश्लेषण करने की कोशिश करता आया है। वे कई किताबों पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं जिनमें सलमान रश्दी की 'सेटेनिक वर्सेस' और तस्लीमा नसरीन की 'लज्जा' शामिल हैं। इसी तरह, हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन यह कहते हैं कि चूंकि उन्हें विश्वास है कि भगवान राम, अयोध्या में एक विशेष स्थान पर जन्मे थे इसलिए जहां कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी,वहां राममंदिर बनाया जाना चाहिए। उनके पास भी किताबों, फिल्मों व अन्य कलाकृतियों की एक लंबी सूची है, जिन्हें वे प्रतिबंधित करवाना चाहते हैं। भारतीय राज्य और उसकी संस्थाएं कई मौकों पर दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों के समक्ष आत्मसमर्पण करती आई हैं। इसका कारण यह है कि उनका सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्र में गैर.आनुपातिक रूतबा है। जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत के अनुरूप, ये तत्व अपनी मनमानी करते आए हैं। जब नेहरू इस देश के प्रधानमंत्री थे तब सार्वजनिक नीतियों को यह ध्यान में रखते हुए नहीं बनाया जाता था कि उससे किस वर्ग के लोग लाभांवित होंगे। नेहरू कहते थे कि बड़े बांध, अस्पताल और श्रेष्ठ शिक्षा प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय ही राज्य के मंदिर हैं। इनके अलावा, राज्य का न कोई मंदिर है, न मस्जिद और न गिरजाघर। उनकी नीतियों के चलते, सामंती श्रेष्ठी वर्ग शनैः शनैः हाशिए पर खिसकता गया। नेहरू ने देश को एक मजबूत औद्योगिक नींव दी। जब सामंती श्रेष्ठी वर्ग ने देखा कि वह लगातार कमजोर होता जा रहा है तो उसने सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग से हाथ मिला लिया। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों ने राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा गढ़ी, जिसमें राष्ट्रवाद को अल्पसंख्यकों के संदर्भ में परिभाषित किया गया। यह कहा गया कि मुसलमान और ईसाई,देश के आंतरिक दुश्मन हैं और पाकिस्तान, बाहरी शत्रु।
सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग की बढ़ती ताकत
पिछले कुछ समय में सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग की ताकत में तेजी से वृद्धि हुई है। पिछले लगभग डेढ़ दशक से कई धार्मिक त्यौहार सार्वजनिक रूप से और बहुत जोरशोर से मनाए जाने लगे हैं। इनको मनाने के तरीकों में कई परिवर्तन किए गए हैं। इन आयोजनों का मुख्य उद्देश्य, आयोजनकर्ताओं का शक्ति प्रदर्शन होता है। धर्म के नाम पर एक बड़ी धनराशि चंदे के रूप में इकट्ठा की जाती है। हाल में हुए 16वीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा ने अकूत धन खर्च किया। देशभर में लगभग 400 बड़ी रैलियां आयोजित की गईं। ऐसा अनुमानित है कि भाजपा ने अपने चुनाव अभियान पर 3000 करोड़ से लेकर 10,000 करोड़ रूपए तक खर्च किए। पार्टी ने इस संबंध में कोई तथ्य जनता के सामने नहीं रखे हैं। ऐसा संदेह है कि यह धनराशि कार्पोरेट घरानों द्वारा पार्टी को दी गई। चुनाव के कई महीनों पहले भारत के सबसे धनी औद्योगिक समूहों ने मोदी का नाम प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तावित किया था। औद्योगिक घरानों को प्रधानमंत्री के नाम का प्रस्ताव क्यों करना चाहिए? सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग और लंपट पूंजीपतियों का गठजोड, देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। देश में दक्षिणपंथी विचारधारा के बढ़ते प्रभाव के चलते भारत के लोगों ने एक स्वघोषित हिन्दू राष्ट्रवादी को प्रधानमंत्री के रूप में चुना है। लोगों ने उन्हें इसलिए चुना है क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि वे देश का विकास करेंगे और करोड़ों बेरोजगारों को काम मिलेगा। क्या उनकी आशाएं पूरी होंगी? क्या सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग और पूंजीपतियों के गठबंधन द्वारा प्रस्तावित विकास के मॉडल का लाभ आम भारतीयों को मिलेगा?या फिर यह मॉडल, उदारवाद और प्रजातंत्र के लिए एक खतरा बनकर उभरेगा?इन प्रश्नों का उत्तर केवल समय ही देगा। -इरफान इंजीनियर |
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